जब भी यह प्रश्न पूछा जाता है तो असद ज़ैदी का नाम सहज ही ज़ुबान पर आ जाता है।
आज ही उनकी कुछ कविताएं बीबीसी की वेबसाइट पर पढ़ीं। एक उठा कर यहां चिपका ली है।
मेरे ब्लॉग का भाव कुछ तो बढ़ा।
नृतत्त्वशास्त्री
नृतत्त्वशास्त्र! इस काम में दिक़्क़त यह है कि अक्सर लोग इसकी बारीकियों को समझते नहीं. मोटे-मोटे सवाल पूछते और ख़ुलासा करते-करते आम आदमी तंग आ जाता है. आखिर क्यों नृतत्त्वशास्त्र? जवाब में एक रोज़ नाटकीय अंदाज़ में मैंने कहा : माट सहाब, जब तक इस दुनिया में नर और नारी हैं, जब तक नृ और तत्त्व हैं, तब तक शास्त्र रहेगा और शास्त्री लोग भी. पास खड़ी देहातिन बोली : ‘ तो शास्त्री जी, कछु शादी ब्याउ भी कराऔ?’ और अपने टूटे-फूटे दाँत दिखाती हुई हँसने लगी. उसकी ननदसे भी रहा न गया : ‘अरी भौजाई, यो तो खुदई कुँआरे एँ. ये का करांगे शादी-आदी!’ कई लोग सस्वर हँसे थे : हा-हा, हो-हो, हा, हि-ही, हू! तो इस तरह परिहास के बीच चल रहा है अपना काम, फ़ील्ड रिसर्च. लोग मेरा अध्ययन ज़्यादा कर रहे हैं, मैं उनका कम.
आखिर की पंक्ति ही शायद इस कविता के अपहरण का मुख्य कारण है।
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