Continuing with the same theme, of delay, I am reminded of few lines that I wrote many-many years back, in 1999 to be precise.
--एक--
एक अलसाई कोंपल देर से फूटी
एक पत्ता देर से हरा हुआ
साथ वाले
.........और
साथ की टहनी वाले
झूमते हवा के साथ
गाते थे चिड़ियों के साथ
वो दोस्त थे सारे
नया पत्ता
कुछ देर से पैदा हुआ
न हवा का रुख़ समझता था
न गीत चिड़ियों का पहचानता था
उसका कोई दोस्त न था
उसने बहुत देर कर दी पैदा होने में
या शायद
...............बहुत जल्दी
--दो--
वो उगा
उस टहनी पर
उसी पर उसे उगना था
वो पैदा हुआ
क्योंकि उसे ही पैदा होना था
हरे रंग पर हक़
............उसका भी था
हवा का रुख़ उसकी मजबूरी न बना
चिड़ियों का गीत
........उसके गुनगुनाने को दबा न सका
वो टहनी
वो पेड़ वो साथ वाले पत्ते
उसके थे
क्योंकि ये उसी के होने थे
1 comment:
Hey Aashish,
liked your poem, written way back in 1999, and also visited your updated blog on msn. you are not only sharpening your writing skills, but also encouraging people like us. so hats off to you. and ya, on your blog, i found my old blog adress, which is not available now, because i do not use it anymore. kindly add my new links: http://charles0003.blogspot.com
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Thanks again, 'Guru Aashish' for inspiration to start blogging.
Charles.
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